ऐसा तह-ए-अफ़्लाक ख़राबा नहीं कोई
उस दश्त से ज़िंदा कभी लौटा नहीं कोई
हैबत वो सदाओं में कि लरज़े दर-ओ-दीवार
गुज़रे वो शब-ओ-रोज़ कि सोया नहीं कोई
वीरान सी वीरान हुई ध्यान की बस्ती
चेहरा किसी चिलमन से झलकता नहीं कोई
सर फोड़ के लौट आती है जाती है जो आवाज़
क्या गुम्बद-ए-आफ़ाक़ में रस्ता नहीं कोई
इक ऐसी मसाफ़त है कि साअ'त भी कठिन है
सदियों का सफ़र और कहीं साया नहीं कोई
बे-इस्म नहीं खुलता दर-ए-गंज-ए-तिलिस्मात
सतरों में ख़ज़ीने हैं तमाशा नहीं कोई
देखी है 'बशीर' अहल-ए-नज़र की भी रसाई
बातें मिरी समझे मुझे समझा नहीं कोई
ग़ज़ल
ऐसा तह-ए-अफ़्लाक ख़राबा नहीं कोई
बशीर अहमद बशीर