ऐसा नहीं कोई कि शनासा कहें जिसे
मिलता कहाँ है कोई हम अपना कहें जिसे
इक मरकज़-ए-ख़याल है दुनिया कहें जिसे
कोई नज़र तो आए कि तुम सा कहें जिसे
साया भी भागता है जहाँ अपनी ज़ात से
वो है सराब दश्त-ए-तमन्ना कहें जिसे
ज़ुल्फ़-ए-दराज़ बन के उलझती रही मुदाम
इक तार-ए-अंकबूत है दुनिया कहीं जिसे
'माहिर' वही न कहते हैं सब जिस को आदमी
हैं ख़ूबियाँ ही क्या कि हम अच्छा कहें जिसे
ग़ज़ल
ऐसा नहीं कोई कि शनासा कहें जिसे
माहिर आरवी