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ऐसा लगता है किसी गुम्बद से टकराई न थी | शाही शायरी
aisa lagta hai kisi gumbad se Takrai na thi

ग़ज़ल

ऐसा लगता है किसी गुम्बद से टकराई न थी

सूरज नारायण

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ऐसा लगता है किसी गुम्बद से टकराई न थी
वर्ना कब आवाज़ मेरी लौट कर आई न थी

था तिरी क़ुर्बत की आँखों में हर इक नश्शा मगर
नींद से जागी हुई यादों की अंगड़ाई न थी

हम को अंधा कर गई थी एक गहरी रौशनी
ज़ुल्मतों की ज़द में आ कर आँख पथराई न थी

क़ैद था क्यूँ चाँद सदियों से हिसार-ए-अब्र में
क्यूँ उजालों ने उसे पोशाक पहनाई न थी

जल गया अपने ही अंदर की हरारत से बदन
सूरजों ने हम पे कोई आग बरसाई न थी

तेरे सीने में तिरा ख़ूँ बर्फ़ कैसे हो गया
क्या तिरे अंदर हरारत की तवानाई न थी