ऐन-मुमकिन है किसी तर्ज़-ए-अदा में आए
क़िस्सा-ए-दर्द-ए-वफ़ा सौत-ओ-सदा में आए
रुत बदलते ही नए रंग के मंज़र उभरे
कुछ परिंदे भी नई मौज-ए-हवा में आए
हम तो आईना-नुमा थे ही सफ़ा-केशी में
नाम कुछ और भी अर्बाब-ए-सफ़ा में आए
इश्क़ ता-हाल तो मतरूक नहीं हो पाया
इन्क़िलाबात भी गो राह-ए-वफ़ा में आए
कुछ गुल-ए-नीलोफ़री झील की तारीकी से
अपनी दानिस्त में अक़्लीम-ए-बक़ा में आए
क्या कहें उस को तज़ादात-ए-ज़माना के सिवा
कितने दरवेश थे जो शाही क़बा में आए
ख़्वाब आँखों में लिए हम भी ब-ताईद-ए-जुनूँ
कैसे इक जल्वा-गह-ए-ख़्वाब-नुमा में आए
शोरिश-ए-अहद में ये तज़्किरा-ए-इश्क़-ए-वफ़ा
जैसे नग़्मा सा कोई बाँग-ए-दरा में आए
ख़ुद को गुम कर के किसी और के पा लेने तक
मरहले और भी तकमील-ए-अना में आए
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ग़ज़ल
ऐन-मुमकिन है किसी तर्ज़-ए-अदा में आए
असलम अंसारी