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ऐ ज़ौक़ अर्ज़-ए-हुनर हर्फ़-ए-ए'तिदाल में रख | शाही शायरी
ai zauq arz-e-hunar harf-e-etidal mein rakh

ग़ज़ल

ऐ ज़ौक़ अर्ज़-ए-हुनर हर्फ़-ए-ए'तिदाल में रख

शाहिद कमाल

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ऐ ज़ौक़ अर्ज़-ए-हुनर हर्फ़-ए-ए'तिदाल में रख
मैं इक जवाब हूँ मुझी को मिरे सवाल में रख

नुक़ूश-ए-ख़ाक-ए-बदन को तू मुंतशिर कर दे
मिरे वजूद को फिर मेरे ख़त्त-ओ-ख़ाल में रख

फिर उस के बा'द हुनर देख मो'जिज़ाई के
तू इस बदन को मिरे दस्त-ए-इत्तिसाल में रख

तू मुझ से माँगना फिर मेरे रोज़-ओ-शब का हिसाब
ऐ हाल हाल मिरे मुझ को मेरे हाल में रख

बुरीदा-सर को सजा दे फ़सील-ए-नेज़ा पर
दरीदा जिस्म को फिर अर्सा-ए-क़िताल में रख

ये दर्द तेरी अमानत है सो इसे तू सँभाल
ये मेरा दिल है इसे क़र्या-ए-मलाल में रख

तुझे ग़ुरूर है मैं भी बला का ज़िद्दी हूँ
ऐ मेरी जान तू इस बात को ख़याल में रख

सुना है तुझ को भी है शेर-ओ-शायरी से शग़फ़
तू मेरे शे'र को फिर 'शाहिद' मिसाल में रख