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ऐ ज़माने तिरी रफ़्तार से डर लगता है | शाही शायरी
ai zamane teri raftar se Dar lagta hai

ग़ज़ल

ऐ ज़माने तिरी रफ़्तार से डर लगता है

रूप साग़र

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ऐ ज़माने तिरी रफ़्तार से डर लगता है
अब तिरी दोस्ती से प्यार से डर लगता है

किन हवाओं का असर तुझ पे हुआ जाता है
तेरे बदले हुए किरदार से डर लगता है

देख सकता नहीं नाकाम तुझे दुनिया में
जीत से अपनी तिरी हार से डर लगता है

दिल को आता नहीं इज़हार-ए-मोहब्बत करना
और मुझ को तेरे इंकार से डर लगता है

ज़ीस्त से पाए हैं ग़म इतने कि अब तो हम को
अपनी ख़ुशियों के भी गुलज़ार से डर लगता है

इस क़दर शोर है इन पाँव की ज़ंजीरों का
मुझ को पायल की भी झंकार से डर लगता है

नुक्ता-चीनी है सब अहबाब का शेवा 'सागर'
इस लिए अपनी ही गुफ़्तार से डर लगता है