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ऐ ज़ालिम तिरे जब से पाले पड़े | शाही शायरी
ai zalim tere jab se pale paDe

ग़ज़ल

ऐ ज़ालिम तिरे जब से पाले पड़े

मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार

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ऐ ज़ालिम तिरे जब से पाले पड़े
हमें अपने जीने के लाले पड़े

फिरे ढूँडते पा-बरहना तुझे
यहाँ तक कि पाँव में छाले पड़े

किया है ये तुग़्याँ मिरे अश्क ने
कि बहते हैं दुनिया में नाले पड़े

चला ग़ैर पर नईं ये तीर-ए-निगाह
हमारी ही छाती पे भाले पड़े

हमें क्यूँ कि वो शोख़ बाले न दे
कि अब कान में कान बाले पड़े

मिरा ख़ून-ए-दिल यूँ बहा दश्त में
कि जंगल में लोहू के थाले पड़े

'जहाँदार' ग़म है किसी लाला-रू का
जो दिल पर तिरे दाग़ काले पड़े