ऐ तअ'स्सुब ज़दा दुनिया तिरे किरदार पे ख़ाक 
बुग़्ज़ की गर्द में लपटे हुए मेआ'र पे ख़ाक 
एक अर्से से मरी ज़ात में आबाद है दश्त 
एक अर्से से पड़ी है दर-ओ-दीवार पे ख़ाक 
वो ग़ज़ालों से अभी सीख के रम लौटा है 
बाल हैं धूल में गुम और लब-ओ-रुख़्सार पे ख़ाक 
मुझे पलकों से सफ़ाई की सआदत हो नसीब 
डाल कर जाए हुआ रोज़ दर-ए-यार पे ख़ाक 
एक ख़ुत्बा जो दिया हज़रत-ए-ज़ैनब ने 'ख़याल' 
आज तक डाल रहा है किसी दरबार पे ख़ाक
        ग़ज़ल
ऐ तअ'स्सुब ज़दा दुनिया तिरे किरदार पे ख़ाक
अहमद ख़याल

