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ऐ सालिक इंतिज़ार-ए-हज में क्या तू हक्का-बक्का है | शाही शायरी
ai salik intizar-e-haj mein kya tu hakka-bakka hai

ग़ज़ल

ऐ सालिक इंतिज़ार-ए-हज में क्या तू हक्का-बक्का है

वली उज़लत

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ऐ सालिक इंतिज़ार-ए-हज में क्या तू हक्का-बक्का है
बघोले सा तू कर ले तौफ़-ए-दिल पहलू में मक्का है

चराग़-ए-गुल को रौशन कर दिया आहों के शो'ले से
हज़ारों दर्जे बुलबुल ख़ाम-परवानों से पक्का है

जो है हर संग में पिन्हाँ सो आतिश लाल से चमकी
सभी में हक़ है हर आरिफ़ में क्या सेवा झमक्का है

गई नीं बू-ए-शीर उस लब से लेकिन देख वो तलअ'त
वही महताब का है आब-ओ-अफ़्सुर्दा हो चक्का है

ऐ रब इरफ़ाँ के दर्पन को न रोवे जौहर-ए-ख़्वाहिश
हवस की मौज अल्मास-ए-सफ़ा-ए-दिल को लक्का है

वो ज़ुल्फ़-ओ-रू से जग है कुफ़्र-ओ-ईमाँ के तरद्दुद में
दो दिल करने कूँ इक आलम के मेरा शोख़ पक्का है

दिल-ए-बैरागी-ए-'उज़लत' में रखता है दम-ए-हस्ती
कमर में ऊस मियाँ के जैसे सैली का मुतक्का है