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ऐ निगाह-ए-दोस्त ये क्या हो गया क्या कर दिया | शाही शायरी
ai nigah-e-dost ye kya ho gaya kya kar diya

ग़ज़ल

ऐ निगाह-ए-दोस्त ये क्या हो गया क्या कर दिया

माहिर-उल क़ादरी

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ऐ निगाह-ए-दोस्त ये क्या हो गया क्या कर दिया
पहले पहले रौशनी दी फिर अंधेरा कर दिया

आदमी को दर्द-ए-दिल की क़द्र करनी चाहिए
ज़िंदगी की तल्ख़ियों में लुत्फ़ पैदा कर दिया

उस निगाह-ए-शौक़ की तीर-अफ़गनी रक्खी रही
मैं ने पहले उस को मजरूह-ए-तमाशा कर दिया

उन की महफ़िल के तसव्वुर ने फिर उन की याद ने
मेरे ग़म-ख़ाना की रौनक़ को दो-बाला कर दिया

मय-कदे की शाम और काँपते हाथों में जाम
तिश्नगी की ख़ैर हो ये किस को रुस्वा कर दिया