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ऐ मौत तुझ पे उम्र-ए-अबद का मदार है | शाही शायरी
ai maut tujh pe umr-e-abad ka madar hai

ग़ज़ल

ऐ मौत तुझ पे उम्र-ए-अबद का मदार है

फ़ानी बदायुनी

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ऐ मौत तुझ पे उम्र-ए-अबद का मदार है
तू ए'तिबार-ए-हस्ती-ए-बे-ए'तिबार है

अहद-ए-अज़ल पे ज़िंदगियों का मदार है
आलम तमाम ग़म-कदा-ए-ए'तिबार है

ज़र्रात-ए-चश्म-ए-शौक़ हैं आमादा-ए-निगाह
महरूमियों को अब भी तिरा इंतिज़ार है

बेदाद का गिला तो करूँ और जो वो कहें
ये कहिए इम्तिहान-ए-वफ़ा नागवार है

इक ये वफ़ा कि नंग-ए-ग़म-ए-दोस्त है हुनूज़
इक वो सितम कि हुस्न का आईना-दार है

तमईज़-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ न इरफ़ान-ए-ग़म मगर
इक तीर-ए-बे-पनाह कलेजे के पार है

मुख़्तार हूँ कि मो'तरिफ़-ए-जब्र-ए-दोस्त हूँ
मजबूर हूँ कि ये भी कोई इख़्तियार है

अब किस को ए'तिबार कि तू बेवफ़ा नहीं
अब किस को इंतिज़ार मगर इंतिज़ार है

बाक़ी नहीं किसी को नशात-ए-जुनूँ का होश
किस जोश पर शबाब-ए-ग़म-ए-रोज़गार है

आदाब-ए-आशिक़ी का तक़ाज़ा है और बात
तू वर्ना दिल की आड़ में ख़ुद बे-क़रार है

होगी किसी को फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारा-ए-जमाल
'फ़ानी' ख़राब-ए-हुस्न तमाशा-ए-यार है