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ऐ मौसम-ए-जुनूँ ये अजब तर्ज़-ए-क़त्ल है | शाही शायरी
ai mausam-e-junun ye ajab tarz-e-qatl hai

ग़ज़ल

ऐ मौसम-ए-जुनूँ ये अजब तर्ज़-ए-क़त्ल है

इबरत मछलीशहरी

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ऐ मौसम-ए-जुनूँ ये अजब तर्ज़-ए-क़त्ल है
इंसानियत के खेतों में लाशों की फ़स्ल है

अपने लहू का रंग भी पहचानती नहीं
इंसान के नसीब में अंधों की नस्ल है

मुंसिफ़ तो फ़ैसलों की तिजारत में लग गए
अब जाने किस से हम को तक़ाज़ा-ए-अद्ल है

दुश्मन का हौसला कभी इतना क़वी न था
मेरे तबाह होने में तेरा भी दख़्ल है

लड़ते भी हैं तो प्यार से मुँह मोड़ते नहीं
हम से कहीं ज़ियादा तो बच्चों में अक़्ल है

तारीख़ कह रही है कि चेहरा बदल गया
इंसान है मुसिर कि वही अपनी शक्ल है

दावा-ए-ख़ूँ-बहा न तज़ल्लुम न एहतिजाज
किस बे-नवा-ए-वक़्त का 'इबरत' ये क़त्ल है