EN اردو
ऐ मौज-ए-सबा सोज़-ए-मुजस्सम उसे कहना | शाही शायरी
ai mauj-e-saba soz-e-mujassam use kahna

ग़ज़ल

ऐ मौज-ए-सबा सोज़-ए-मुजस्सम उसे कहना

निकहत बरेलवी

;

ऐ मौज-ए-सबा सोज़-ए-मुजस्सम उसे कहना
मुमकिन है वो पूछे मिरा आलम उसे कहना

चाहा मिरे हालात ने पैहम उसे कहना
लेकिन न हुई प्यार की लौ कम उसे कहना

इक हम ही नहीं शाकी-ए-आलम उसे कहना
अब अहल-ए-तरब को भी है ये ग़म उसे कहना

शायद कभी पड़ जाए किसी तौर ज़रूरत
मिलते हैं सर-ए-राहगुज़र हम उसे कहना

तू किस लिए नाराज़ हुआ अहल-ए-वफ़ा से
दुनिया तो हमेशा से है बरहम उसे कहना

कहना तो बहुत कुछ है मगर मस्लहत-ए-वक़्त
बे-आब से हैं शोला-ओ-शबनम उसे कहना

माना कि मिरे दम से नहीं बज़्म की रौनक़
फिर भी तो ग़नीमत है मिरा दम उसे कहना