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ऐ ख़ुदा भरम रखना बरक़रार इस घर का | शाही शायरी
ai KHuda bharam rakhna barqarar is ghar ka

ग़ज़ल

ऐ ख़ुदा भरम रखना बरक़रार इस घर का

इकराम मुजीब

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ऐ ख़ुदा भरम रखना बरक़रार इस घर का
है तिरे करम पर ही इंहिसार इस घर का

हर किवाड़ डूबा है बे-कराँ उदासी में
और हर दरीचा ही सोगवार इस घर का

फैलती चली जाए बेल बद-गुमानी की
ख़त्म ही नहीं होता इंतिशार इस घर का

इस जहाँ में होगा बे-अमल न हम जैसा
हम न रख सके क़ाएम ए'तिबार इस घर का

किस क़दर गुनाहों के मुर्तकिब हुए हैं हम
जो सुकून लुटता है बार बार इस घर का

गर्द बे-यक़ीनी की गर समेट लें मिल कर
मो'तबर घरों में हो फिर शुमार इस घर का

जान से गुज़रने का हौसला अता कर दे
अब मकीं न हो कोई शर्मसार इस घर का