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ऐ कहकशाँ-नवाज़ मुक़द्दर उजाल दे | शाही शायरी
ai kahkashan-nawaz muqaddar ujal de

ग़ज़ल

ऐ कहकशाँ-नवाज़ मुक़द्दर उजाल दे

बाक़र नक़वी

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ऐ कहकशाँ-नवाज़ मुक़द्दर उजाल दे
मेरी तरफ़ भी एक सितारा उछाल दे

हम पूरे आफ़्ताब के क़ाबिल नहीं अगर
थोड़ी सी पीली धूप ही आँखों में डाल दे

हाँ कहते कहते गुंग न हो जाए दिल कहीं
यारब मिरी ज़बान को ताब-ए-सवाल दे

रोगी हुआ है धूप को तरसा हुआ बदन
ऐ मामता सुपूत को घर से निकाल दे

कोई तो दोस्तों से मिरे दोस्ती करे
कोई तो मेहरबाँ हो बलाओं को टाल दे

तू लफ़्ज़-गर तो है तुझे शाइर कहेंगे जब
इक बे-ज़बान हर्फ़ को नग़्मे में ढाल दे

बिजली का तीर जैसे धनक की कमान में
क्या और इस शबाब की कोई मिसाल दे

'बाक़र' इस आफ़्ताब में जौहर है इस क़दर
आ जाए जोश में तो समुंदर उबाल दे