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ऐ कहकशाँ गुज़र के तिरी रहगुज़र से हम | शाही शायरी
ai kahkashan guzar ke teri rahguzar se hum

ग़ज़ल

ऐ कहकशाँ गुज़र के तिरी रहगुज़र से हम

फ़ाज़िल अंसारी

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ऐ कहकशाँ गुज़र के तिरी रहगुज़र से हम
आगे बढ़ेंगे और मक़ाम-ए-क़मर से हम

अज़्म-ए-बुलंद हौसला-ए-मुस्तक़िल लिए
गुज़रे हर एक मरहला-ए-सख़्त-तर से हम

देखा तो है ज़मीं से तुझे गुम्बद-ए-फ़लक
देखेंगे अब ज़मीं को तिरे बाम-ओ-दर से हम

जब से हुई है आँख शब-ए-ग़म से आश्ना
ना-आश्ना हैं लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर से हम

दिल इज़तिराब-ओ-दर्द से महरूम हो गया
बाज़ आए तेरे लुत्फ़-ओ-करम की नज़र से हम

हर ताज़ा ग़म के वास्ते जा-ए-क़याम है
तंग आ गए हैं वुसअत-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर से हम

तर्ग़ीब दे न ऐ दिल-ए-फुर्क़त-नसीब तू
वाक़िफ़ हैं ख़ूब आह-ओ-फ़ुग़ाँ के असर से हम

'फ़ाज़िल' हमारा हाल भी होता तिरी मिसाल
रहते न होशियार अगर राहबर से हम