ऐ दोस्त कहीं तुझ पे भी इल्ज़ाम न आए
इस मेरी तबाही में तिरा नाम न आए
ये दर्द है हमदम उसी ज़ालिम की निशानी
दे मुझ को दवा ऐसी कि आराम न आए
काँधे पे उठाए हैं सितम राह-ए-वफ़ा के
शिकवा मुझे तुम से है कि दो-गाम न आए
लगता है कि फैलेगी शब-ए-ग़म की सियाही
आँसू मिरी पलकों पे सर-ए-शाम न आए
मैं बैठ के पीता रहूँ बस तेरी नज़र से
हाथों में कभी मेरे कोई जाम न आए
बैठा हूँ दिया घर का जो 'नासिर' मैं जला के
ऐसा न हो फिर वो दिल-ए-नाकाम न आए
ग़ज़ल
ऐ दोस्त कहीं तुझ पे भी इल्ज़ाम न आए
हकीम नासिर