ऐ दिल अब और कोई क़िस्सा-ए-दुनिया न सुना
छेड़ दे ज़िक्र-ए-वफ़ा हाँ कोई अफ़्साना सुना
ग़ीबत-ए-दहर बहुत गोश-ए-गुनहगार में है
कुछ ग़म-ए-इश्क़ के औसाफ़-ए-करीमाना सुना
कार-ए-दीरोज़ अभी आँखों से कहाँ सिमटा है
ख़ूँ रुलाने के लिए क़िस्सा-ए-फ़र्दा न सुना
दामन-ए-बाद को है दौलत-ए-शबनम काफ़ी
रूह को ज़िक्र-ए-तुनुकबख़्शी-ए-दरिया न सुना
सुनते हैं उस में वो जादा है कि दिल चीज़ है क्या
सुनते हैं उस पे वो आलम है कि देखा न सुना
गोश-ए-बेहोश वो क्या जिस ने कि हंगाम-ए-नवा
कोई नाला ही लब-ए-नय से निकलता न सुना
हम-नशीं पर्दगी-ए-राज़ इसे कहते हैं
लब-ए-साग़र से किसी रिंद का चर्चा न सुना
कुछ अजब चाल से जाता है ज़माना अब के
हश्र देखे हैं मगर हश्र का ग़ौग़ा न सुना
बढ़ गया रोज़-ए-क़यामत से शब-ए-ग़म का सुकूत
जिस्म-ए-आदम में कहीं दिल ही धड़कता न सुना
नौहा-ए-ग़म कोई उस बज़्म में छेड़े क्यूँकर
जिस ने गीतों को भी बा-ख़ातिर-ए-बेगाना सुना
ग़ज़ल
ऐ दिल अब और कोई क़िस्सा-ए-दुनिया न सुना
शानुल हक़ हक़्क़ी