ऐ आह तिरी क़द्र असर ने तो न जानी
गो तुज को लक़ब हम ने दिया अर्श-मकानी
यक ख़ल्क़ की नज़रों में सुबुक हो गया लेकिन
करता हूँ मैं अब तक तिरी ख़ातिर पे गिरानी
टुक दीदा-ए-तहक़ीक़ से तू देख ज़ुलेख़ा
हर चाह में आता है नज़र यूसुफ़-ए-सानी
मामूर है जिस रोज़ से वीराना-ए-दुनिया
हर जिंस के इंसाँ की ये माटी गई छानी
इक वामिक़-ए-नौ का है समझ चाक गरेबाँ
करती है जो रख़्ना कोई दीवार पुरानी
बुलबुल ही सिसकती न थी कुछ बाग़ में तुझ बिन
शबनम गुलों के मुँह में चुवाती रही पानी
है गोश-ज़दा ख़ल्क़ मिरा क़िस्सा-ए-जाँ-काह
जब से कि न समझे था तू चिड़िया की कहानी
जूँ शम्अ मुझे शर्म है ज़ुन्नार की ऐ शैख़
माला न जपूँ रात को बे-अश्क-फ़िशानी
जिस सम्त नज़र मौज-ए-सराब आवे तो ये जान
होवेगी किसी ज़ुल्फ़-ए-चलीपा की निशानी
क्या क्या मिले लैला-मनशाँ ख़ाक में 'सौदा'
गो अपने भी महबूब की देखी न जवानी
ग़ज़ल
ऐ आह तिरी क़द्र असर ने तो न जानी
मोहम्मद रफ़ी सौदा