EN اردو
अहल-ए-तूफ़ाँ आओ दिल-वालों का अफ़्साना कहें | शाही शायरी
ahl-e-tufan aao dil-walon ka afsana kahen

ग़ज़ल

अहल-ए-तूफ़ाँ आओ दिल-वालों का अफ़्साना कहें

मजरूह सुल्तानपुरी

;

अहल-ए-तूफ़ाँ आओ दिल-वालों का अफ़्साना कहें
मौज को गेसू भँवर को चश्म-ए-जानाना कहें

दार पर चढ़ कर लगाएँ नारा-ए-ज़ुल्फ़-ए-सनम
सब हमें बाहोश समझें चाहे दीवाना कहें

यार-ए-नुक्ता-दाँ किधर है फिर चलें उस के हुज़ूर
ज़िंदगी को दिल कहें और दिल को नज़राना कहें

थामें उस बुत की कलाई और कहें इस को जुनूँ
चूम लें मुँह और इसे अंदाज़-ए-रिंदाना कहें

सुर्ख़ी-ए-मय कम थी मैं ने छू लिए साक़ी के होंट
सर झुका है जो भी अब अरबाब-ए-मय-ख़ाना कहें

तिश्नगी ही तिश्नगी है किस को कहिए मय-कदा
लब ही लब हम ने तो देखे किस को पैमाना कहें

पारा-ए-दिल है वतन की सरज़मीं मुश्किल ये है
शहर को वीरान या इस दिल को वीराना कहें

ऐ रुख़-ए-ज़ेबा बता दे और अभी हम कब तलक
तीरगी को शम-ए-तन्हाई को परवाना कहें

आरज़ू ही रह गई 'मजरूह' कहते हम कभी
इक ग़ज़ल ऐसी जिसे तस्वीर-ए-जानाना कहें