अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
ज़िंदगी मजबूरियों का नाम हो कर रह गई
हो गए बर्बाद तेरी आरज़ू से पेश-तर
ज़ीस्त नज़्र-ए-गर्दिश-ए-अय्याम हो कर रह गई
तौबा तौबा उस निगाह-ए-मस्त की सरशारियाँ
देरपा तौबा भी ग़र्क़-ए-जाम हो कर रह गई
उस निगाह-ए-नाज़ को तो कोई कुछ कहता नहीं
और मोहब्बत की नज़र बदनाम हो कर रह गई
हर ख़ुशी तब्दील ग़म में हो गई तेरे बग़ैर
सुब्ह मुझ तक आई भी तो शाम हो कर रह गई
रू-ब-रू उन के कहाँ थी फ़ुर्सत-ए-इज़हार-ए-ग़म
लब को इक जुम्बिश बराए नाम हो कर रह गई
उन के जल्वों की सहर तो 'तर्ज़' दुनिया ले गई
गेसुओं की शाम अपने नाम हो कर रह गई
ग़ज़ल
अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
गणेश बिहारी तर्ज़