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अहल-दैर-ओ-हरम रह गए | शाही शायरी
ahl-e-dair-o-haram rah gae

ग़ज़ल

अहल-दैर-ओ-हरम रह गए

फ़ना निज़ामी कानपुरी

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अहल-दैर-ओ-हरम रह गए
तेरे दीवाने कम रह गए

मिट गए मंज़िलों के निशाँ
सिर्फ़ नक़्श-ए-क़दम रह गए

हम ने हर शय सँवारी मगर
उन की ज़ुल्फ़ों के ख़म रह गए

बे-तकल्लुफ़ वो औरों से हैं
नाज़ उठाने को हम रह गए

रिंद जन्नत में जा भी चुके
वाइ'ज़-ए-मोहतरम रह गए

देख कर तेरी तस्वीर को
आइना बन के हम रह गए

ऐ 'फ़ना' तेरी तक़दीर में
सारी दुनिया के ग़म रह गए