अहल-दैर-ओ-हरम रह गए
तेरे दीवाने कम रह गए
मिट गए मंज़िलों के निशाँ
सिर्फ़ नक़्श-ए-क़दम रह गए
हम ने हर शय सँवारी मगर
उन की ज़ुल्फ़ों के ख़म रह गए
बे-तकल्लुफ़ वो औरों से हैं
नाज़ उठाने को हम रह गए
रिंद जन्नत में जा भी चुके
वाइ'ज़-ए-मोहतरम रह गए
देख कर तेरी तस्वीर को
आइना बन के हम रह गए
ऐ 'फ़ना' तेरी तक़दीर में
सारी दुनिया के ग़म रह गए
ग़ज़ल
अहल-दैर-ओ-हरम रह गए
फ़ना निज़ामी कानपुरी