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अहल-ए-बदन को इश्क़ है बाहर की कोई चीज़ | शाही शायरी
ahl-e-badan ko ishq hai bahar ki koi chiz

ग़ज़ल

अहल-ए-बदन को इश्क़ है बाहर की कोई चीज़

फ़रहत एहसास

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अहल-ए-बदन को इश्क़ है बाहर की कोई चीज़
बाहर किसे मिली है मगर घर की कोई चीज़

बाज़ार रोज़ आएगा जिस घर में बे-दरेग़
बाज़ार भी तो जाएगी उस घर की कोई चीज़

क़तरे का ए'तिमाद भी कुछ बे-सबब नहीं
क़तरे के पास भी है समुंदर की कोई चीज़

आज उस के लम्स-ए-गर्म से जैसे पिघल गई
मुझ में धड़क रही थी जो पत्थर की कोई चीज़

सारा हुजूम है किसी अपनी तलाश का
खोई गई है शहर में अक्सर की कोई चीज़

ये है किसी विसाल की हसरत कि ख़ौफ़-ए-हिज्र
चुभती है रात-भर मुझे बिस्तर की कोई चीज़

'एहसास' शाइ'री में घुलाता है फ़ल्सफ़ा
हर शे'र अर्ज़ करता है जौहर की कोई चीज़