अहद-ए-रफ़्ता की हिकायत कर्बला से कम न थी
ज़िंदगानी नस्ल-ए-आदम पर बला से कम न थी
ख़ून के दरिया की लहरों में बशर ग़र्क़ाब था
वक़्त की रफ़्तार गोया बद-दुआ से कम न थी
फिर रहे थे हुक्मराँ कश्कोल ले कर दर-ब-दर
बंदगी की ज़ाहिरी सूरत गदा से कम न थी
हर तरफ़ ख़ूनीं भँवर हर सम्त चीख़ों के अज़ाब
मौज-ए-गुल भी अब के दोज़ख़ की हवा से कम न थी
माबदों में जिन के ईमाँ पर लहू छिड़का गया
उन के ख़ाल-ओ-ख़त की रौनक़ पारसा से कम न थी
ज़ुल्म के इफ़रीत ने शहरों को वीराँ कर दिया
यूँ तो बर्बादी जहाँ में इब्तिदा से कम न थी
ऐसी ज़ालिम दास्तानें कान में पड़ती रहीं
हैसियत जिन की तिलिस्मी माजरा से कम न थी
जाने किस गिर्दाब-ए-ज़ुल्मत में डुबोया है उन्हें
जिन की रौशन रहनुमाई नाख़ुदा से कम न थी

ग़ज़ल
अहद-ए-रफ़्ता की हिकायत कर्बला से कम न थी
ख़याल अमरोहवी