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अहद-ए-कम-कोशी में ये भी हौसला मैं ने किया | शाही शायरी
ahd-e-kam-koshi mein ye bhi hausla maine kiya

ग़ज़ल

अहद-ए-कम-कोशी में ये भी हौसला मैं ने किया

आलमताब तिश्ना

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अहद-ए-कम-कोशी में ये भी हौसला मैं ने किया
शहर के सब बंद दरवाज़ों को वा मैं ने किया

मैं ने सफ़-आरा किया इक मजमा-ए-शोरीदा-सर
कज-कुलाह-ए-शहर को बे-माजरा मैं ने किया

दे दिए महरूमियों के हाथ में जाम-ओ-सुबू
मय-कदे में एक हंगामा बपा मैं ने किया

मैं अदालत में उठा लाया हूँ ख़ुद अपनी सलीब
मेरे मुंसिफ़ देख ये भी फ़ैसला मैं ने किया

मैं ने मजनूँ को दिया दर्स-ए-सुलूक-ए-आशिक़ी
चाक-दामाँ को मोहब्बत की जज़ा मैं ने किया

मैं ने ऐवानों में फेंके संग-ए-जुर्रत-आफ़रीं
नश्शा-ए-ताक़त-असर को बे-मज़ा मैं ने किया

इस से बढ़ कर और क्या होगा सुबूब-ए-बंदगी
मुझ से 'तिश्ना' उस ने जो कुछ भी कहा मैं ने किया