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अहद-ए-जुनूँ में बैठे बैठे जो ग़ज़लें लिख डाली थीं | शाही शायरी
ahd-e-junun mein baiThe baiThe jo ghazlen likh Dali thin

ग़ज़ल

अहद-ए-जुनूँ में बैठे बैठे जो ग़ज़लें लिख डाली थीं

क़ैसर-उल जाफ़री

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अहद-ए-जुनूँ में बैठे बैठे जो ग़ज़लें लिख डाली थीं
हम को रुस्वा दुनिया भर को पागल करने वाली थीं

आँखों में वो शाम का टुकड़ा अक्सर चुभता रहता है
घर में आँधी जब आई थी शमएँ जलने वाली थीं

चाँद सितारे टूट रहे थे ख़्वाबों की अँगनाई में
आँख खुली तो देखा घर की सब दीवारें काली थीं

चुटकी भर उम्मीद नहीं थी कासा ले कर क्या फिरते
शहर-ए-वफ़ा की सारी गलियाँ अपनी देखी-भाली थीं

प्यार का मौसम बीत चुका था बस्ती में जब पहुँचे हम
लोगों ने फूलों के बदले तलवारें मँगवा ली थीं

'क़ैसर' दिल का हाल सुना कर जब यारों का मुँह देखा
सब के चेहरे सूखे सूखे सब की आँखें ख़ाली थीं