अहबाब मिरे दर्द से कुछ बे-ख़बर न थे
ये और बात है वो कोई चारागर न थे
ताक़त थी जब बदन में तो दरवाज़ा बंद था
जब दर खुला क़फ़स का मिरे बाल-ओ-पर न थे
अंजान हम थे राह से मंज़िल भी दूर थी
अच्छा हुआ कि आप शरीक-ए-सफ़र न थे
इस वास्ते भी मुझ को तिरा ग़म अज़ीज़ है
जितने भी ग़म मिले वो ग़म मो'तबर न थे
तारीक रात का था सफ़र राह पुर-ख़तर
रौशन कहीं चराग़ सर-ए-रहगुज़र न थे
वो दिन भी क्या थे दिल में तमन्ना न थी कोई
तकमील-ए-आरज़ू के लिए दर-ब-दर न थे
सैलाब-ओ-ज़लज़ले में हुए कितने घर तबाह
वो लोग बे-नियाज़ रहे जिन के घर न थे
कुछ लोग मिल गए थे यूँही राह में मुझे
जो मेरे साथ साथ थे वो हम-सफ़र न थे
सब ने मिरा कलाम पढ़ा लेकिन ऐ 'सईद'
जो मेरे नाक़िदीन थे वो दीदा-वर न थे

ग़ज़ल
अहबाब मिरे दर्द से कुछ बे-ख़बर न थे
जे. पी. सईद