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अहबाब के क़रीब मोहब्बत से बैठिए | शाही शायरी
ahbab ke qarib mohabbat se baiThiye

ग़ज़ल

अहबाब के क़रीब मोहब्बत से बैठिए

मैकश नागपुरी

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अहबाब के क़रीब मोहब्बत से बैठिए
इज़्ज़त जो मिल गई है तो इज़्ज़त से बैठिए

उन की गली में जाना ज़रूरी नहीं मगर
जाना जो हो गया तो शराफ़त से बैठिए

अंजाम-ए-इश्क़ ठीक ही होगा जनाब-ए-शैख़
फ़ुर्सत से आ गए हो तो फ़ुर्सत से बैठिए

साहिल से हर ख़ुशी का नज़ारा फ़ुज़ूल है
तूफ़ान-ए-ग़म में रह के भी हिम्मत से बैठिए

नफ़रत की बात करना गुनाह-ए-अज़ीम है
महबूब के क़रीब तो चाहत से बैठिए

रह रह के गिर रही हैं निगाहों की बिजलियाँ
आ कर हमारे पास मोहब्बत से बैठिए

'मैकश' को पीने दीजिए ज़ुल्फ़ों की छाँव में
कुछ देर उस के पास मोहब्बत से बैठिए