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अहबाब भी हैं ख़ूब कि तश्हीर कर गए | शाही शायरी
ahbab bhi hain KHub ki tashhir kar gae

ग़ज़ल

अहबाब भी हैं ख़ूब कि तश्हीर कर गए

सहबा वहीद

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अहबाब भी हैं ख़ूब कि तश्हीर कर गए
मेरा सुकूत इश्क़ से ताबीर कर गए

जादू-असर थे होंट कि साग़र को चूम कर
कुछ और ही शराब की तासीर कर गए

हर उज़्व जैसे जिस्म का था बोलता हुआ
लहराए उस के हाथ कि तक़रीर कर गए

अज़-बाम ता-ब-मय-कदा गेसू धुआँ धुआँ
आलम तमाम हल्क़ा-ए-ज़ंजीर कर गए

तहरीर-ए-ख़त्त-ए-जाम से सब वा हुए रुमूज़
हम उक़्दा-ए-मियान की तदबीर कर गए

हाँ कातिबान-ए-नामा-ए-आमाल को थी कद
कुछ और मेरी फ़र्द में तहरीर कर गए

'सहबा' वो एक लफ़्ज़ था दीवार का लिखा
हम जो मिटे तो इश्क़ की तौक़ीर कर गए