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अहम आँखें हैं या मंज़र खुले तो | शाही शायरी
aham aankhen hain ya manzar khule to

ग़ज़ल

अहम आँखें हैं या मंज़र खुले तो

शमीम अब्बास

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अहम आँखें हैं या मंज़र खुले तो
अभी हैं बंद कितने दर खुले तो

तो फिर क्या हाल हो बस कुछ न पूछो
जो भीतर है वही बाहर खुले तो

ख़याल ओ लफ़्ज़ हैं दस्त-ओ-गरेबाँ
है कम-तर कौन है बरतर खुले तो

सब अपनी करनी मेरे मत्थे मंढ दी
मुसिर था ख़ैर ख़ुद कि शर खुले तो

दिखाई देगा कुछ का कुछ सभी कुछ
मगर मंज़र का पस-ए-मंज़र खुले तो

कड़ी हम हैं उसी इक सिलसिले की
समुंदर उमडे गर गागर खुले तो

नदारद वुसअतें सब रिफ़अतें फिर
परों में आसमाँ हैं पर खुले तो

मज़े की नींद इक लम्बी सी झपकी
बदन तेरा मिरा बिस्तर खुले तो