अगरचे ज़ेहन के कश्कोल से छलक रहे थे
ख़याल शेर में ढलते हुए झिजक रहे थे
कोई जवाब न सूरज में था न चाँद के पास
मिरे सवाल सर-ए-आसमाँ चमक रहे थे
न जाने किस के क़दम चूमने की हसरत में
तमाम रास्ते दिल की तरह धड़क रहे थे
किसी से ज़ेहन जो मिलता तो गुफ़्तुगू करते
हुजूम-ए-शहर में तन्हा थे हम, भटक रहे थे
ये उस ने देखा था इक रक़्स-ए-ना-तमाम के ब'अद
वुफ़ूर-ए-शौक़ में कौन-ओ-मकाँ थिरक रहे थे
किताब-ए-उम्र-ए-गुज़िश्ता के हाशियों में 'नबील'
वो शोर था कि ज़मीं आसमाँ धमक रहे थे
ग़ज़ल
अगरचे ज़ेहन के कश्कोल से छलक रहे थे
अज़ीज़ नबील