EN اردو
अगरचे ज़ेहन के कश्कोल से छलक रहे थे | शाही शायरी
agarche zehn ke kashkol se chhalak rahe the

ग़ज़ल

अगरचे ज़ेहन के कश्कोल से छलक रहे थे

अज़ीज़ नबील

;

अगरचे ज़ेहन के कश्कोल से छलक रहे थे
ख़याल शेर में ढलते हुए झिजक रहे थे

कोई जवाब न सूरज में था न चाँद के पास
मिरे सवाल सर-ए-आसमाँ चमक रहे थे

न जाने किस के क़दम चूमने की हसरत में
तमाम रास्ते दिल की तरह धड़क रहे थे

किसी से ज़ेहन जो मिलता तो गुफ़्तुगू करते
हुजूम-ए-शहर में तन्हा थे हम, भटक रहे थे

ये उस ने देखा था इक रक़्स-ए-ना-तमाम के ब'अद
वुफ़ूर-ए-शौक़ में कौन-ओ-मकाँ थिरक रहे थे

किताब-ए-उम्र-ए-गुज़िश्ता के हाशियों में 'नबील'
वो शोर था कि ज़मीं आसमाँ धमक रहे थे