अगरचे वक़्त मुनाजात करने वाला था
मिरा मिज़ाज सवालात करने वाला था
मुझे सलीक़ा न था रौशनी से मिलने का
मैं हिज्र में गुज़र-औक़ात करने वाला था
मैं सामने से उठा और लौ लरज़ने लगी
चराग़ जैसे कोई बात करने वाला था
खुली हुई थीं बदन पर रवाँ रवाँ आँखें
न जाने कौन मुलाक़ात करने वाला था
वो मेरे काबा-ए-दिल में ज़रा सी देर रुका
ये हज अदा वो मिरे साथ करने वाला था
कहाँ ये ख़ाक के तोदे तले दबा हुआ जिस्म
कहाँ मैं सैर-ए-समावात करने वाला था
ग़ज़ल
अगरचे वक़्त मुनाजात करने वाला था
रफ़ी रज़ा