अगरचे रोज़-ए-अज़ल भी यही अँधेरा था
तिरी जबीं से निकलता हुआ सवेरा था
पहुँच सका न मैं बर-वक़्त अपनी मंज़िल पर
कि रास्ते में मुझे रहबरों ने घेरा था
तिरी निगाह ने थोड़ी सी रौशनी कर दी
वगर्ना अर्सा-ए-कौनैन में अँधेरा था
ये काएनात और इतनी शराब-आलूदा
किसी ने अपना ख़ुमार-ए-नज़र बिखेरा था
सितारे करते हैं अब उस गली के गिर्द तवाफ़
जहाँ 'अदम' मिरे महबूब का बसेरा था
ग़ज़ल
अगरचे रोज़-ए-अज़ल भी यही अँधेरा था
अब्दुल हमीद अदम