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अगरचे कोई भी अंधा नहीं था | शाही शायरी
agarche koi bhi andha nahin tha

ग़ज़ल

अगरचे कोई भी अंधा नहीं था

अमजद इस्लाम अमजद

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अगरचे कोई भी अंधा नहीं था
लिखा दीवार का पढ़ता नहीं था

कुछ ऐसी बर्फ़ थी उस की नज़र में
गुज़रने के लिए रस्ता नहीं था

तुम्ही ने कौन सी अच्छाई की है
चलो माना कि मैं अच्छा नहीं था

खुली आँखों से सारी उम्र देखा
इक ऐसा ख़्वाब जो अपना नहीं था

मैं उस की अंजुमन में था अकेला
किसी ने भी मुझे देखा नहीं था

सहर के वक़्त कैसे छोड़ जाता
तुम्हारी याद थी सपना नहीं था

खड़ी थी रात खिड़की के सिरहाने
दरीचे में वो चाँद उतरा नहीं था

दिलों में गिरने वाले अश्क चुनता
कहीं इक जौहरी ऐसा नहीं था

कुछ ऐसी धूप थी उन के सरों पर
ख़ुदा जैसे ग़रीबों का नहीं था

अभी हर्फ़ों में रंग आते कहाँ से
अभी मैं ने उसे लिक्खा नहीं था

थी पूरी शक्ल उस की याद मुझ को
मगर मैं ने उसे देखा नहीं था

बरहना ख़्वाब थे सूरज के नीचे
किसी उम्मीद का पर्दा नहीं था

है 'अमजद' आज तक वो शख़्स दिल में
कि जो उस वक़्त भी मेरा नहीं था