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अगरचे कहने को कल काएनात अपनी थी | शाही शायरी
agarche kahne ko kal kaenat apni thi

ग़ज़ल

अगरचे कहने को कल काएनात अपनी थी

मसूदा हयात

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अगरचे कहने को कल काएनात अपनी थी
हक़ीक़तन कहाँ अपनी भी ज़ात अपनी थी

कहें तो किस से कहें हम हयात अपनी थी
न कोई दिन था हमारा न रात अपनी थी

कोई भी आज तो अपना नज़र नहीं आता
जो तुम थे अपने तो कुल काएनात अपनी थी

ये क्या कि आज कोई नाम तक नहीं लेता
वो दिन भी थे कि हर इक लब पे बात अपनी थी

हमारे पास रहा क्या है अब ग़मों के सिवा
वो दिन गए कि रह-ए-शश-जिहात अपनी थी

हमीं से भूल कहीं हो गई मोहब्बत में
वगरना वो निगह-ए-इल्तिफ़ात अपनी थी

जो तुम क़रीब थे हर शय पे इख़्तियार सा था
ये चाँद और सितारों की रात अपनी थी

हमें ख़ुद अपनी ख़िरद का ग़ुरूर ले डूबा
नहीं तो एक ज़माने में बात अपनी थी

'हयात' इस लिए नज़्म-ए-कुहन को तोड़ दिया
कि आज सिर्फ़ इसी में नजात अपनी थी