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अगर वो मिल के बिछड़ने का हौसला रखता | शाही शायरी
agar wo mil ke bichhaDne ka hausla rakhta

ग़ज़ल

अगर वो मिल के बिछड़ने का हौसला रखता

इफ़्फ़त ज़र्रीं

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अगर वो मिल के बिछड़ने का हौसला रखता
तो दरमियाँ न मुक़द्दर का फ़ैसला रखता

वो मुझ को भूल चुका अब यक़ीन है वर्ना
वफ़ा नहीं तो जफ़ाओं का सिलसिला रखता

भटक रहे हैं मुसाफ़िर तो रास्ते गुम हैं
अँधेरी रात में दीपक कोई जला रखता

महक महक के बिखरती हैं उस के आँगन में
वो अपने घर का दरीचा अगर खुला रखता

अगर वो चाँद की बस्ती का रहने वाला था
तो अपने साथ सितारों का क़ाफ़िला रखता

जिसे ख़बर नहीं ख़ुद अपनी ज़ात की 'ज़र्रीं'
वो दूसरों का भला किस तरह पता रखता