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अगर वो गुल-बदन दरिया नहाने बे-हिजाब आवे | शाही शायरी
agar wo gul-badan dariya nahane be-hijab aawe

ग़ज़ल

अगर वो गुल-बदन दरिया नहाने बे-हिजाब आवे

अब्दुल वहाब यकरू

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अगर वो गुल-बदन दरिया नहाने बे-हिजाब आवे
तअज्जुब नहिं कि सब पानी सती बू-ए-गुलाब आवे

जिधाँ देखूँ बहाराँ में नशात-ए-बुलबुल-ओ-क़ुमरी
मुझे उस वक़्त बे-शक याद अय्याम-ए-शबाब आवे

मिरा अफ़्साना ओ अफ़्सूँ तिरे कन सब्ज़ क्यूँके हो
सियह मिज़्गाँ तुम्हारी देख के सब्ज़े कूँ ख़्वाब आवे

मिरी अँखियाँ फड़कती हैं यक़ीं है दिल मनीं याराँ
कि नामे कूँ पियारे के कबूतर ले शिताब आवे

सियह-मस्ताँ के आगे सीं निकलना है निपट मुश्किल
अगर होश्यार तुझ अँखियाँ के तईं देखे ख़राब आवे

दरंग इक दम नहीं लाज़िम जुदाई सीं फड़कता है
कहो जा कर ख़ुश-अबरू कूँ कि 'यकरू' कन शिताब आवे