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अगर वो अपने हसीन चेहरे को भूल कर बे-नक़ाब कर दे | शाही शायरी
agar wo apne hasin chehre ko bhul kar be-naqab kar de

ग़ज़ल

अगर वो अपने हसीन चेहरे को भूल कर बे-नक़ाब कर दे

अख़्तर शीरानी

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अगर वो अपने हसीन चेहरे को भूल कर बे-नक़ाब कर दे
तो ज़र्रे को माहताब और माहताब को आफ़्ताब कर दे

तिरी मोहब्बत की वादियों में मिरी जवानी से दूर क्या है
जो सादा पानी को इक नशीली नज़र में रंगीं शराब कर दे

हरीम-ए-इशरत में सोने वाले शमीम-ए-गेसू की मस्तियों से
मिरी जवानी की सादा रातों को अब तो सरशार ख़्वाब कर दे

मज़े वो पाए हैं आरज़ू में कि दिल की ये आरज़ू है यारब
तमाम दुनिया की आरज़ूएँ मिरे लिए इंतिख़ाब कर दे

नज़र ना आने पे है ये हालत कि जंग है शैख़-ओ-बरहमन में
ख़बर नहीं क्या से क्या हो दुनिया जो ख़ुद को वो बे-नक़ाब कर दे

मिरे गुनाहों की शोरिशें इस लिए ज़ियादा रही हैं यारब
कि इन की गुस्ताख़ियों से तू अपने अफ़्व को बे-हिसाब कर दे

ख़ुदा न लाए वो दिन कि तेरी सुनहरी नींदों में फ़र्क़ आए
मुझे तो यूँ अपने हिज्र में उम्र भर को बेज़ार-ए-ख़्वाब कर दे

मैं जान-ओ-दिल से तसव्वुर-हुस्न-ए-दोस्त की मस्तियों के क़ुर्बां
जो इक नज़र में किसी के बे-कैफ़ आँसुओं को शराब कर दे

उरूस-ए-फ़ितरत का एक खोया हुआ तबस्सुम है जिस को 'अख़्तर'
कहीं वो चाहे शराब कर दे कहीं वो चाहे शबाब कर दे