अगर तक़दीर तेरी बाइस-ए-आज़ार हो जाए 
तुझे लाज़िम है उस से बर-सर-ए-पैकार हो जाए 
मिरी कश्ती है मैं हूँ और गिर्दाब-ए-मोहब्बत है 
जो तू हो ना-ख़ुदा मेरा तो बेड़ा पार हो जाए 
कमाल-ए-ज़ब्त-ए-ग़म से ये गवारा ही नहीं मुझ को 
कि हर्फ़-ए-आरज़ू शर्मिंदा-ए-इज़हार हो जाए 
तेरे ख़्वाब-ए-गिराँ पर ऐ दिल-ए-नादाँ तअज्जुब है 
कि तू सोता रहे सारा जहाँ बेदार हो जाए 
उन्हें क्यूँ कोसता है जो तुझे कहते हैं कम-हिम्मत 
बुरा क्या है हक़ीक़त का अगर इज़हार हो जाए 
तुम्हें ऐ अर्श क्यूँ है तीर-ए-ग़म से इतनी बे-ज़ारी 
यही बेहतर है ये नावक जिगर के पार हो जाए
        ग़ज़ल
अगर तक़दीर तेरी बाइस-ए-आज़ार हो जाए
अर्श मलसियानी

