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अगर रोना ही अब मेरा मुक़द्दर है मोहब्बत में | शाही शायरी
agar rona hi ab mera muqaddar hai mohabbat mein

ग़ज़ल

अगर रोना ही अब मेरा मुक़द्दर है मोहब्बत में

वक़ार मानवी

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अगर रोना ही अब मेरा मुक़द्दर है मोहब्बत में
तो दामन भी तुम्हारा हो मिरे अश्कों की क़िस्मत में

सवाली हो के मैं ने तेरे दर को बख़्श दी इज़्ज़त
नहीं तो क्या नहीं है मेरे दामान-ए-मोहब्बत में

पए-बख़्शिश अभी दरिया-ए-रहमत जोश में आए
कम-अज़-कम ये असर तो है मिरे अश्क-ए-नदामत में

पहुँच कर उन के संग-ए-आस्ताँ पर भी नहीं मिटती
वो महरूमी-ए-सज्दा जो लिखी होती है क़िस्मत में

अता को देख अपनी ज़र्फ़-ए-दिल का ज़िक्र क्या साक़ी
कि दरिया भी समा है ज़र्फ़-ए-दिल की वुसअत में

वो आलम याद है जब दिल खिंचा जाता था पहलू से
कशिश पहली सी क्या बाक़ी नहीं लफ़्ज़-ए-मोहब्बत में

'वक़ार' ऐ काश मेरी उम्र में शामिल न की जाए
वो मुद्दत हाँ वही मुद्दत जो गुज़री उन की फ़ुर्क़त में