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अगर न ज़ोहरा-जबीनों को बे-वफ़ा कहिए | शाही शायरी
agar na zohra-jabinon ko be-wafa kahiye

ग़ज़ल

अगर न ज़ोहरा-जबीनों को बे-वफ़ा कहिए

मुस्लिम अंसारी

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अगर न ज़ोहरा-जबीनों को बे-वफ़ा कहिए
तो फिर तग़ाफ़ुल-ए-पैहम पे उन को क्या कहिए

हुज़ूर क्यूँ मिरी हर बात ना-रवा कहिए
बुरा हूँ मैं तो यक़ीनन मुझे बुरा कहिए

हसीन यूँ तो ज़माने में कज-अदा हैं सभी
मगर सवाल ये है किस को कज-अदा कहिए

ख़मोशियों पे जफ़ाओं का जब ये आलम है
तो फिर हसीनों से किस तरह मुद्दआ' कहिए

जो लुट ही जाना ब-हर-हाल है मआल-ए-सफ़र
तो क्यूँ न रहज़न-ए-मंज़िल को रहनुमा कहिए

यही वफ़ा का है दस्तूर भी तक़ाज़ा भी
कि हर जफ़ा को सितमगार की अदा कहिए

बुतों को शौक़-ए-ख़ुदाई हुआ है ऐ 'मुस्लिम'
जनाब आप भी पत्थर को अब ख़ुदा कहिए