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अगर मैं मोजज़े को ख़ाकसारी के अयाँ करता | शाही शायरी
agar main moajaze ko KHaksari ke ayan karta

ग़ज़ल

अगर मैं मोजज़े को ख़ाकसारी के अयाँ करता

वली उज़लत

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अगर मैं मोजज़े को ख़ाकसारी के अयाँ करता
बगूले सा बना और ही ज़मीं ओ आसमाँ करता

मुझे हक़ गुलशन-ए-ईजाद का गर बाग़बाँ करता
तो अश्क-ए-बुलबुलों को आबयार-ए-गुलिस्ताँ करता

गिला दिल-सख़्ती-ए-अहबाब का गर मैं बयाँ करता
सदफ़ सा पल में आँसू उक़्दा-ए-दिल के रवाँ करता

जो दीवान-ए-क़ज़ा की पेशकारी हक़ मुझे देता
तो रेशे सर्व के मिज़्गान-ए-चश्म-ए-क़ुमरियाँ करता

ख़ुदा गर ख़ाना सामान-ए-क़ज़ा करता ये 'उज़लत' को
तो परवानों की राख ऐ शम्अ सुब्ह-ए-आसमाँ करता