अगर मैं मोजज़े को ख़ाकसारी के अयाँ करता
बगूले सा बना और ही ज़मीं ओ आसमाँ करता
मुझे हक़ गुलशन-ए-ईजाद का गर बाग़बाँ करता
तो अश्क-ए-बुलबुलों को आबयार-ए-गुलिस्ताँ करता
गिला दिल-सख़्ती-ए-अहबाब का गर मैं बयाँ करता
सदफ़ सा पल में आँसू उक़्दा-ए-दिल के रवाँ करता
जो दीवान-ए-क़ज़ा की पेशकारी हक़ मुझे देता
तो रेशे सर्व के मिज़्गान-ए-चश्म-ए-क़ुमरियाँ करता
ख़ुदा गर ख़ाना सामान-ए-क़ज़ा करता ये 'उज़लत' को
तो परवानों की राख ऐ शम्अ सुब्ह-ए-आसमाँ करता
ग़ज़ल
अगर मैं मोजज़े को ख़ाकसारी के अयाँ करता
वली उज़लत