अगर कुछ मोड़ रस्ते में न आते
तो मुमकिन था तुझे हम भूल जाते
मता-ए-होश की बाज़ी लगा कर
बिसात-ए-इश्क़ पे हम हार जाते
कहाँ माज़ी कहाँ इमरोज़-ओ-फ़र्दा
कहाँ से दास्ताँ अपनी सुनाते
ग़ुरूर-ज़ब्त से पहलू बचा कर
तुम्हीं को दोस्तो हम आज़माते
अगर होता न कुछ ख़ुद पर भरोसा
तुम्हें ऐ 'दर्द' हम महरम बनाते

ग़ज़ल
अगर कुछ मोड़ रस्ते में न आते
विश्वनाथ दर्द