अगर ख़ू-ए-तहम्मुल हो तो कोई ग़म नहीं होता
गिले शिकवे से रंग-ए-ज़िन्दगी कुछ कम नहीं होता
बुझी जाती हैं शमएँ रहगुज़ार-ए-ज़िंदगानी की
चराग़-ए-आरज़ू लेकिन कभी मद्धम नहीं होता
ख़ुदा के सामने जो सर यक़ीं के साथ झुक जाए
किसी ताक़त के आगे फिर कभी वो ख़म नहीं होता
अता की है ख़ुदा ने इल्म की दौलत अगर तुझ को
सख़ावत कर सख़ावत ये ख़ज़ाना कम नहीं होता
सियासत जुज़्व-ए-ईमाँ है चलो यूँही सही लेकिन
कोई मुर्शिद मिज़ाज-ए-वक़्त का महरम नहीं होता
उरूज-ए-पैकर-ए-ख़ाकी से है इंसानियत लर्ज़ां
फ़साद ओ सरकशी से पाक ये आलम नहीं होता
सुनो आज़ादी-ए-इंसाँ का धोंसा पीटने वालो
हर इक इंसाँ वजह-ए-अज़मत-ए-आदम नहीं होता
ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़-ओ-हिम्मत है रसाई फ़िक्र-ए-इंसाँ की
हर इक आमी रुमूज़-ए-मुल्क का महरम नहीं होता

ग़ज़ल
अगर ख़ू-ए-तहम्मुल हो तो कोई ग़म नहीं होता
वासिफ़ देहलवी