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अगर कभी तिरे आज़ार से निकलता हूँ | शाही शायरी
agar kabhi tere aazar se nikalta hun

ग़ज़ल

अगर कभी तिरे आज़ार से निकलता हूँ

ज़फ़र इक़बाल

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अगर कभी तिरे आज़ार से निकलता हूँ
तो अपने दाएरा-ए-कार से निकलता हूँ

हवा-ए-ताज़ा हूँ रुकना नहीं कहीं भी मुझे
घरों में घुसता हूँ अश्जार से निकलता हूँ

कभी है उस के मज़ाफ़ात में नुमूद मिरी
कभी मैं अपने ही आसार से निकलता हूँ

मैं घर में जब नहीं होता तो घास की सूरत
दरीचा ओ दर-ओ-दीवार से निकलता हूँ

इसी किनारा-ए-दरिया-ए-ज़ात पर हर-दम
ग़ुरूब होता हूँ उस पार से निकलता हूँ

विदाअ' करती है रोज़ाना ज़िंदगी मुझ को
मैं रोज़ मौत के मंजधार से निकलता हूँ

रुका हुआ कोई सैलाब हूँ तबीअ'त का
हमेशा तुंदी-ए-रफ़्तार से निकलता हूँ

इसे भी कुछ मिरी हिम्मत ही जानिए जो कभी
ख़याल-ओ-ख़्वाब के अम्बार से निकलता हूँ

लिबास बेचता हूँ जा के पहले अपना 'ज़फ़र'
तो कुछ ख़रीद के बाज़ार से निकलता हूँ