अगर इतना न तू अय्यार होता
तो दुश्मन का न हरगिज़ यार होता
दुई का नक़्श मिटता दिल से ऐ काश
मय-ए-वहदत से मैं सरशार होता
जो होते आज-कल क़ैस और फ़रहाद
मैं उन का क़ाफ़िला-सालार होता
न होता गर तिरा तालिब जहाँ में
तो मैं पाबंद-ए-नंग-ओ-आर होता
लगाए चाट पर हैं उस को दुश्मन
इलाही मैं भी कुछ ज़रदार होता
अगर होता मुझे पास आबरू का
न तेरा आशिक़-ए-दीदार होता
तड़पता है क़फ़स में ताइर-ए-दिल
निकल जाता अगर पर-दार होता
तमन्ना दिल की 'साक़ी' जब निकलती
अगर मुँह से न कुछ इज़हार होता
ग़ज़ल
अगर इतना न तू अय्यार होता
पंडित जवाहर नाथ साक़ी