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अगर फ़ितरत का हर अंदाज़ बेबाकाना हो जाए | शाही शायरी
agar fitrat ka har andaz bebakana ho jae

ग़ज़ल

अगर फ़ितरत का हर अंदाज़ बेबाकाना हो जाए

माहिर-उल क़ादरी

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अगर फ़ितरत का हर अंदाज़ बेबाकाना हो जाए
हुजूम-ए-रंग-ओ-बू से आदमी दीवाना हो जाए

करम कैसा सितम से भी न वो बेगाना हो जाए
मैं डरता हूँ मोहब्बत में कहीं ऐसा न हो जाए

मुझे उस अंजुमन में बार पा कर इस पे ख़दशा है
मिरा अंदाज़-ए-बेताबी न गुस्ताख़ाना हो जाए

निगाह-ए-मस्त साक़ी की तिलिस्म-ए-रंग-ओ-मस्ती है
कहीं पैमाना बन जाए कहीं मय-ख़ाना बन जाए

यहाँ भी कुछ निगाहें तिश्ना-ए-दीदार हैं साक़ी
इधर भी एक दौर-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना हो जाए

मैं उस महफ़िल की तोहमत किस तरह आख़िर उठाऊँगा
ख़मोशी भी जहाँ अफ़्साना-दर-अफ़्साना हो जाए

नक़ाब उल्टे हुए इक रोज़ अगर वो ख़ुद चले आएँ
सियह-ख़ाना मिरा 'माहिर' तजल्ली-ख़ाना हो जाए