अगर दिल इश्क़ के अनवार से मा'मूर हो जाए
तो फिर ये ज़र्रा ख़ुद रश्क-ए-चराग़-ए-तूर हो जाए
तुम अपने जल्वा-ए-नौख़ेज़ पर यूँ नाज़ करते हो
अगर मेरा दिल-ए-ख़ुद्दार भी मग़रूर हो जाए
फ़क़त इस राज़ को अहल-ए-मोहब्बत ही समझते हैं
मयस्सर आए जितना क़ुर्ब इतना दूर हो जाए
मुझे ये ज़िद कि उन के रू-ए-ज़ेबा से नक़ाब उठ्ठे
उन्हें ये ज़िद कि जल्वा और भी मस्तूर हो जाए
वो मेरे दिल के गुलशन में अगर आ जाए ऐ 'जौहर'
तो हर इक ना-शगुफ़्ता ग़ुंचा रंग-ओ-नूर हो जाए

ग़ज़ल
अगर दिल इश्क़ के अनवार से मा'मूर हो जाए
जौहर ज़ाहिरी