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अगर दश्त-ए-तलब से दश्त-ए-इम्कानी में आ जाते | शाही शायरी
agar dasht-e-talab se dasht-e-imkani mein aa jate

ग़ज़ल

अगर दश्त-ए-तलब से दश्त-ए-इम्कानी में आ जाते

अज़्म शाकरी

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अगर दश्त-ए-तलब से दश्त-ए-इम्कानी में आ जाते
मोहब्बत करने वाले दल परेशानी में आ जाते

हिसार-ए-सब्र से जिस रोज़ मैं बाहर निकल आता
समुंदर ख़ुद मिरी आँखों की वीरानी में आ जाते

अगर साए से जल जाने का इतना ख़ौफ़ था तो फिर
सहर होते ही सूरज की निगहबानी में आ जाते

जुनूँ की अज़्मतों से आश्नाई ही न थी वर्ना
जो थे अहल-ए-ख़िरद सब चाक-दामानी में आ जाते

किसी ज़रदार की यूँ नाज़-बरदारी से बेहतर था
किसी उजड़े हुए दिल की बयाबानी में आ जाते