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अगर चाहूँ झटक कर तोड़ दूँ ज़ंजीर-ए-तन्हाई | शाही शायरी
agar chahun jhaTak kar toD dun zanjir-e-tanhai

ग़ज़ल

अगर चाहूँ झटक कर तोड़ दूँ ज़ंजीर-ए-तन्हाई

मलिका नसीम

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अगर चाहूँ झटक कर तोड़ दूँ ज़ंजीर-ए-तन्हाई
मैं तिनका हूँ मगर मौजों से है मेरी शनासाई

शरीक-ए-राह थी जब तक हमारी आबला-पाई
न माथे पर शिकन उभरी न पाँव में थकन आई

हवा से सुब्ह-ए-ना-आसूदगी अच्छा किया तू ने
किताब-ए-ज़िंदगी के कुछ वरक़ तू भी उड़ा लाई

हज़ारों मरहले थे फ़स्ल-ए-गुल से चाक-ए-दामाँ तक
ख़िज़ाँ गुज़री तो कब गुज़री बहार आई तो कब आई

'नसीम' इक दिन वो आएगा कि मज़लूमों के क़दमों में
पनाहें ढूँढती होगी सितम-रानों की दाराई