अगर चाहूँ झटक कर तोड़ दूँ ज़ंजीर-ए-तन्हाई
मैं तिनका हूँ मगर मौजों से है मेरी शनासाई
शरीक-ए-राह थी जब तक हमारी आबला-पाई
न माथे पर शिकन उभरी न पाँव में थकन आई
हवा से सुब्ह-ए-ना-आसूदगी अच्छा किया तू ने
किताब-ए-ज़िंदगी के कुछ वरक़ तू भी उड़ा लाई
हज़ारों मरहले थे फ़स्ल-ए-गुल से चाक-ए-दामाँ तक
ख़िज़ाँ गुज़री तो कब गुज़री बहार आई तो कब आई
'नसीम' इक दिन वो आएगा कि मज़लूमों के क़दमों में
पनाहें ढूँढती होगी सितम-रानों की दाराई
ग़ज़ल
अगर चाहूँ झटक कर तोड़ दूँ ज़ंजीर-ए-तन्हाई
मलिका नसीम